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एक मुखर प्रतिवाद है
चुप्पी
शोर के खिलाफ
किस वेदना से व्याकुल
सागर
पटकता रहता है सिर
किनारों पर
किसकी तलाश में
गाँव-गाँव, शहर-शहर
जंगल-जंगल की खाक छानती फिरती
है ये पगली हवा
ये कौन खिला गया है
कल तक सिमटी-सी सिकुड़ी-सी पड़ी
कलियों के होंठों पर
मधुर हास
ये किसने
बिखेर दिए हैं
रात्रिकालीन आकाश में
असंख्य जुगनू
ये कौन है
जो उतरता है
दिल में
दर्द की गहरी लकीर-सा
कौन है
जिसे देखा था
रात सपने में !
जिंदगी कोई सपना तो नहीं
एक तल्ख हकीकत है
महसूस किया है
शिद्दत के साथ
सोचता हूँ
मेरा अस्तित्व क्या है ?
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